किसान और सियासत
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बात चुपके से कहना, दीवारों के भी कान होते हैं!
सियासत की मार से, घायल नित किसान होते हैं!!
कौन सुनता इनके दुख दर्द, कौन मरहम इन्हें लगाता!
राजनेता अपने हित में, अपना सिर्फ एजेण्डा चलाता!
प्रत्येक पार्टी से नित्य प्रति दिन, छले हुए इंसान होते हैं!
सियासत की मार से, घायल नित किसान होते हैं!!
फसल बर्बादी का मुआवजा, देती हैं जब सरकार!
ठगी किसान देखता रह जाता, नेता पाते धन अपार!
न चुल्हा जलता हैं इनके, न घर में समान होते है!
सियासत की मार से, घायल नित किसान होते हैं!!
दफन हो गया खेत में, अब शास्त्री जी का वो नारा!
जय किसान का उदघोष, बन गया लचार बेसहारा!
चिन्ता नहीं किसी को, कि उनका भी अरमान होते हैं!
सियासत की मार से, घायल नित किसान होते हैं!!
फसलों की रोपाई के लिए, खोदी गई कई नहर!
गाँव तक जाने के लिए, बनी हुई वो पक्की डगर!
पैसे खा गये रसूकदार, नक्शे पर निशान होते हैं
सियासत की मार से, घायल नित किसान होते हैं! !
नयूनतम समर्थक मूल्य, बाजार समीति का झासा!
दालाल अपने दलाली मे, कई किसानो को फासा!
भोले- भाले ये, सरकार के नीति से हैरान होते हैं!
सियासत की मार से, घायल नित किसान होते हैं!!
बैंक का कर्जा और व्याज में साहुकार का धन्धा!
आत्महत्या कर रहें हैं, किसान रोज लगा कर फंदा!
दर - बदर, सर पटकते , इनके सन्तान होते हैं!
सियासत की मार से, घायल नित किसान होते हैं!!
किसान अपना व्यथा किसी से, करे तो करे कहाँ!
धन के देवता, जब धनहीन, बन गये हैं अब यहाँ!
"विजय" "अदीक्षा" सजल नयन, मुक जुबान होते हैं!
सियासत की मार से, घायल नित किसान होते हैं!!
बात चुपके से कहना, दीवारों के भी कान होते हैं!
सियासत की मार से , घायल नित किसान होते हैं!!
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*प्रेरक- कु. अदीक्षा देवांगन*
*सृजक-विजय सिंह "रवानी"*

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