क़ाफ़िया ना बहर
*ग़ज़ल*
क़ाफ़िया ना बहर
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लिखती हूँ ग़ज़ल कि क़ाफ़िया ना बहर,
रहती हूँ उधर जो कि गाँव ना शहर!
कि बनता हो काम तो बन जाए महज़,
ढाओ न उस पर अब ना कोई कहर!
क्या दर्दे-दिल और क्या राहे-क़यामत,
ग़म है तो गज़ब मानों मीठी ज़हर!
नजरों से नज़र देखो तो मिला कर,
कहीं हो न जाए वो इनायते-नज़र!
शबनम हूँ मैं देखो ग़म-ए-रात की,
मरती हूँ उधर जिधर हो जाए सहर!
"अदीक्षा"क्या मोहब्बत में हुई तिज़ारत,
उसने यूँ घोंप दी क्यूँ दिल में ख़ंज़र!
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कुमारी अदीक्षा देवांगन,
बलरामपुर (छत्तीसगढ़)
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संपादन - विजय सिंह "रवानी"
7587241771 / 9098208751

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