किसान समस्या - काल के कपाल पर
*मनहरण घनाक्षरी*
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काल के कपाल पर, लिख दूँ सवाल खर,
हल धर का सवाल, होता नहीं क्यों हल।
मिटिंग पर मिटिंग, डेटिंग पर डेटिंग,
सेटिंग हो जिस पर, आता नहीं वो पल।
बात ये विधान की है, बात संविधान की है,
एक कहे इसे अच्छा, दूजा कहे ये छल।
अडिग हो जब दोनों, बात पर ही अपने,
बोलो कैसे निकलेगा, इसका कोई हल।।
बाल का निकाल खाल, नेताओं की है ये चाल,
सत्ता है भँवर जाल, आप ही हो सबल ।
दलदल दलों की है, खेल सब छलो की है,
नहीं कुछ कोई मुद्दा, नहीं कुछ है फल।
मूरख बनाते सब, किसानों का बनें रब,
खुद की है नाव डूबी, आप ही है मचल।
पुत्र तुम धरती के, भाग्य तुम भारती के,
बहो न बहकाने में, झूठी हैं हल चल।।
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जमीदारी प्रथा से आज तक
किसानों को ठगा कौन ?
है एक ज्वलंत सवाल कि
धरतीपुत्र का सगा कौन?
बिलखते रहे किसान वक्त की मार से।
कहीं सुखा ,कहीं पर वर्षा की धार से ।
कभी मिला नेताओं की झूठी तसल्ली,
कभी छले उनके वादों की बौछार से।
कोसते रहे भाग्य को और
सोचते रहे उन्हें दगा कौन?
हैं एक ज्वलंत सवाल कि
धरतीपुत्र का सगा कौन?
अन्न उगाने वाले तरसे अन्न खाने के लिए।
असहाय हो जाते हैं कर्ज चुकाने के लिए।
कहने को तो है ये हम सभी के अन्न दाता,
पर कितने मजबूर हैं घर चलाने के लिए।
सुन कर इनका रूदन
इस धरा पर जगा कौन?
हैं एक ज्वलंत सवाल कि
धरतीपुत्र का सगा कौन?
कितना सहज सरल किसानों का स्वभाव।
सदा जिन पर रहती है औरों का प्रभाव।
पूस की रात में ठण्ड से नित्य ठिठुरने वाले,
स्वास्थ ,शिक्षा और सुविधाओं का अभाव।
इनके मनोभाव को जगा
कर इनसे दूर भगा कौन?
है एक ज्वलंत सवाल कि
धरतीपुत्र का सगा कौन?
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🙏🙏🙏🙏🙏🙏
*विजय सिंह "रवानी*
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