वाह ! ज़िंदगी !! - लघुकथा - कु अदीक्षा देवांगन "अदी"
*लघुकथा*
शीर्षक - *वाह! ज़िंदगी!!*
लेखिका-अदीक्षा' देवांगन"अदी"
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आज उसे बहुत सुकून था। कल तक न सर पे कोई छत था न कोई स्थाई रोजी-रोजगार। उदरपूर्ति और छोटी-मोटी ज़रूतों के लिए इधर-उधर हाथ मारने के दिन गुज़र चुके थे।
आज अधेड़ उम्र के इस पड़ाव में जि़दगी जीनें के सारे संसाधन उपलब्ध थे। सर पे छत, विशाल किला, सुरक्षा के घेरे, उँची-उँची दीवारें जहाँ परिंदा भी पर न मार सके।
समय के साथ नहाना-धोना,भोजन-पानी और स्वास्थ्य भी खराब हो तो तत्काल दवा-दारू,नौकर-चाकर, कपड़े-लत्ते सारे के सारे सरकारी। कौन भला कोई ऐसा दरिद्र भी होगा जो नहीं चाहे गा ऐसी ज़िंदगी?
एकांत में बैठा था वह। चेहरे पे कई तरह के बनते-बिगड़ते हाव-भाव आ रहे थे, जा रहे थे।
शायद अतीत की यादें उसकी स्मरण की दृष्टि-पटल पर चित्रित हो रही थी कि कैसे उसके माता-पिता गाँव में ज़मीन गिरवी रख कर उसे पढ़ाया-लिखाया। सपने लिए उसका शहर आना। नौकरी के लिए संघर्ष और नौकरी न मिलना। मज़बूर होकर रिक्शा खींचना। असमय ही माता-पिता के काल के गाल में समा जाना। गाँव की छोटी सी ज़मीन भी उससे छीन जाना। एक खुबसूरत लड़की से उसका प्यार हो जाना और लड़की का यह शर्त कि जबतक अपना खुद का घर न होगा वह विवाह नहीं करेगी। घर खरीदने के लिए कठिन परिश्रम से जमा किया गया धन फ़र्ज़ी कंपनी के बिल्डर के द्वारा हड़प लेना। लंबी कानूनी लड़ाई के बाद भी इंसाफ के नाम पर सिर्फ़ तारीख पे तारीख मिलना।
उस लड़की की शादी किसी दूसरे व्यक्ति से हो जाना।
और हाँ! सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इस पड़े-लिखे संघर्षी इंसान द्वारा आख़िर में थक हार कर उस बिल्डर को गोली मार देना।
"जी हाँ !ठिक समझी आप ने।यह है तिहाड़ जेल।"
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अदीक्षा देवांगन "अदी"
बलरामपुर (छत्तीसगढ़)
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