ज़िंदगी का खेल कैसे खेलते हैं- ग़ज़ल - कु अदीक्षा देवांगन "अदी"
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ग़ज़ल
अदीक्षा देवांगन "अदी"
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2122 2122 2122
ज़िंदगी का खेल कैसे खेलते हैं,
ज़िंदगी को काटते या झेलते हैं!
आदमी ही मारता है आदमी को,
एक दूजे को सभी यूँ घेरते हैं!
रौशनी तो इस जहां में हम करेंगें,
ज्ञान की माला सभी जो फेरते हैं!
बात से कोई अगर समझे नहीं तो,
म्यान से तलवार भी तब हेरते हैं!
आसमां में छेद कर देंगे सही में,
जोर से जो पत्थरों को फेंकते हैं!
ज़िदग़ी की काल गाड़ी तब चले है,
हाथ से दोनों मिले फिर ठेलते हैं!
बाज आते ही नहीं बैरी "अदी"तो,
छोड़ते हम भी नहीं जो छेड़ते हैं!
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अदीक्षा देवांगन "अदी"
बलरामपुर(36गढ़)
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स्वरचित मौलिक ग़ज़ल
सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रकाशन तिथि- १४.०५.२०२१
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