क़ैद-ए-इश्क से हो ज़मानत मेरी- ग़ज़ल- अदीक्षा देवांगन "अदी"
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ग़ज़ल,
मौज़ू- ज़मानत
रचना-अदीक्षा देवांगन "अदी"
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२१२ २१२ २१२ २१२
क़ैद-ए-इश्क से हो ज़मानत मेरी,
अब हमें चाहिए वो अमानत मेरी!
प्यार के वास्ते दिल दिए थे मगर,
दिल नहीं मानता है इज़ाजत मेरी!
आदमी गढ़ दिए,बेवफा इस कदर,
है ख़ुदा से यही तो शिकायत मेरी!
आज़माते रहे वो अदा रात-दिन,
भूल जाओ सभी तुम अदावत मेरी!
नूर सा चेहरा बुझ गया आज क्यों,
जानता कौन है यार हालत मेरी!
बागबां फूल से क्यों ख़फ़ा हो गया,
मैं कहा कुछ नहीं ये शराफत मेरी!
देख लो आग में धी लगे डालने,
जो धुअाँ उठ रहा वो क़यामत मेरी!
साज़ है, गीत है मौसिकी भी यहाँ,
राग है भोर की गुनगुनाहट मेरी!
ये क़ज़ा आज फिर आजमाने लगी,
मौत से हो रही है बगावत मेरी!
चाँद में दाग है कह गए वो हमें,
इश्क़ में तो नहीं ये तिज़ारत मेरी!
ऐ "अदी"प्यार में हारना तुम नहीं,
इश्क़ हो हिंद से प्यार चाहत मेरी!
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अदीक्षा देवांगन"अदी"
बलरामपुर (छत्तीसगढ़)
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रदीफ़=मेरी।
*नोट* :- ग़ज़ल की दुनियाँ में(मेरी,तेरी,तेरे,मेरे,मेरा,तेरा)
एक ऐसा शब्द है जिसकी मात्रा-भार,ग़ज़ल की मांगानुसार गिन सकते हैं।
जैसे-मेरी=12, 22 या 21,
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